दैनिक समसामयिकी 03.07.2017

🌏दैनिक समसामयिकी🗺

🌐03.07.201🌐


1.तनाव के बीच मिलेंगे मोदी-चिनफिंग

• कूटनीति में अक्सर यह होता है जब दो देशों की सरकारों के प्रतिनिधियों के बीच लगातार मुलाकात होती है और उनके बीच केमिस्ट्री बनती है तो इसका असर उन देशों के रिश्तों पर भी पड़ता है। लेकिन भारत और चीन फिलहाल अपवाद नजर आते हैं।

• प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच पिछले तीन वर्षो में तकरीबन एक दर्जन बार बैठक होने के बावजूद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। सिक्किम में सीमा के नजदीक चीन के सड़क बनाने और चीनी सेना के भारतीय बंकरों को नष्ट करने से इसमें और इजाफा हुआ है।

• ऐसे में दोनों नेताओं के बीच फिर इस हफ्ते मुलाकात के आसार हैं लेकिन कूटनीतिक जानकार उससे बहुत उम्मीद नहीं लगा रहे।

• मोदी और चिनफिंग जी-20 देशों की बैठक में शामिल होने के लिए सात जुलाई को हैमबर्ग (जर्मनी) पहुंच रहे हैं। बहुत संभव है कि दोनों नेताओं के बीच औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर वहां बातचीत हो। इसके अलावा दोनों नेताओं के बीच शीघ्र ही चीन में ब्रिक्स के शीर्ष नेताओं की बैठक में भी द्विपक्षीय वार्ता होना तय है।

• विदेश मंत्रलय के सूत्रों के मुताबिक प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी अगर किसी विश्व नेता से सबसे ज्यादा बार मिले हैं तो वह चीन के राष्ट्रपति चिनफिंग हैं। मोदी और चिनफिंग के बीच तीन वर्षो में तकरीबन 12 बार मुलाकात हो चुकी है।

• कुछ हफ्ते पहले ही दोनों ने बहुत ही अच्छे माहौल में अस्ताना में मुलाकात की थी। लेकिन इसके बावजूद आपसी रिश्तों में तल्खी बढ़ती गई है। पिछले दो वर्षो से चीन भारत के हितों को लेकर अड़ंगा डालने का कोई मौका नहीं छोड़ रहा। .

• दो वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र में जैश-ए-मुहम्मद के आतंकी मौलाना मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव का विरोध कर जो शुरुआत चीन ने की थी वह अब सिक्किम से जुड़े भारतीय क्षेत्र पर दावा करने तक आ चुका है। ऐसे में मोदी और चिनफिंग के बीच एक और मुलाकात से कोई खास उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।

• जहां तक जी-20 देशों की बैठक में मुलाकात का सवाल है तो सूत्रों का कहना है कि अभी तक दोनों देशों की तरफ से मुलाकात का प्रस्ताव नहीं आया है लेकिन वहां बैठक इस तरह से चलती है कि हर देश के नेता की दूसरे से कई बार मुलाकात हो जाती है। इसलिए कई बार तैयारी नहीं होने के बावजूद नेता जब एक दूसरे से मिलते हैं तो वह आधिकारिक बैठक का रूप ले लेता है।


2. बीआरआइ पर फिर सामने आई चीन की बौखलाहट

• बिल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआइ या सिल्क रोड) पर एक बार फिर से चीन की बौखलाहट सामने आई है। सरकार की आवाज समझी जाने वाली समाचार एजेंसी शिन्हुआ में प्रकाशित लेख में भारत से बीआरआइ का हिस्सा नहीं बनने के फैसले पर विचार करने की बात कही गई है। इसमें भारत से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को लेकर पैदा रणनीतिक चिंता छोड़कर बीआरआइ में शामिल होने की दलील दी गई है।.

• सिक्किम में जारी तनातनी के बीच चीन की सरकारी एजेंसी ने भारत से बीआरआइ का हिस्सा बनकर प्रतिद्वंद्वी के बजाय सहयोगी बनने का आग्रह किया है।

• शिन्हुआ ने ‘रणनीतिक अदूरदर्शिता हो सकता है भारत का चीन फोबिया’ शीर्षक से आलेख प्रकाशित की है। भारत ने मई में चीन में आयोजित बेल्ट एंड रोड फोरम सम्मलेन का बहिष्कार किया था। विश्लेषकों राय में चीन को इस बात का भय सता रहा है कि 1.2 अरब जनसंख्या वाले बाजार के बिना उसकी महत्वाकांक्षी परियोजना सफल नहीं हो सकेगी।

• मालूम हो कि बीआरआइ के तहत आने वाली सीपीईसी परियोजना गुलाम कश्मीर से होकर गुजरेगी। भारत इसे संप्रभुता का उल्लंघन मानता है। हालांकि, चीन सरकार का आधिकारिक विचार माने जाने वाले लेख में सीपीईसी का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है।

• शिन्हुआ ने लिखा, ‘भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह चीनी चिंता से आगे बढ़कर बीआरआइ के प्रभावों का सावधानी से आकलन करे। नई दिल्ली को इसके संभावित फायदों को मान्यता देते हुए मौकों को भुनाना चाहिए। भारत प्रतिद्वंद्वी होने के बजाय सहयोगी साझीदार हो सकता है।’

• लेख में भारत स्थित चीनी दूतावास के उप-प्रमुख लियू जिनसोंग के बयान का भी उल्लेख किया गया है। उन्होंने कहा था कि एशिया का समंदर और आसमान इतना बड़ा है, जहां ड्रैगन और हाथी साथ में खुशी-खुशी रह सकते हैं। ऐसा होने पर ही एशिया का युग सच्चे अर्थो में आएगा। भारत के बहिष्कार के बाद चीन की आधिकारिक मीडिया में लगातार ऐसे लेख प्रकाशित हो रहे हैं, जिनमें भारत को बीआरआइ का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

• चीन इस परियोजाना के जरिये एशिया के अलावा अफ्रीकी देशों तक भी अपनी पहुंच सुनिश्चित करना चाहता है, लेकिन भारत के विरोध से वह इसकी सफलता को लेकर संशकित है।

• इस परियोजना की जद में आने वाले अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था काफी छोटी है, जबकि अकेले भारत की आबादी सवा अरब से ज्यादा है। ऐसे में बीजिंग भारत को भी इस परियोजना का हिस्सा बनाना चाहता है।

• शिन्हुआ में प्रकाशित लेख में यहां तक कहा गया है कि भारत अपनी चिंताओं को सार्वजनिक तौर पर जाहिर करे, ताकि उसे बातचीत के जरिये सुलझाया जा सके।

• चीन किसी भी हालत में भारत को इस परियोजना में शामिल करना चाहता है। वहीं, भारत इस प्रोजेक्ट पर कई बार सार्वजनिक तौर पर संदेह जता चुका है। नई दिल्ली इसे क्षेत्र के सैन्यीकरण के तौर पर भी देखता है।


3. चीन को रोकने के लिए इजरायल साबित होगा हमारा स्ट्रैटजिक पार्टनर

• विश्व नई करवटें ले रहा है। अमेरिका और रूस अपनी भूमिकाएं तय कर चुके हैं। चीन इनके बीच बने स्पेस में अपनी जगह बना रहा है। ऐसे में एशिया को केंद्र में रखकर देखें तो कहना अतार्किक नहीं होगा कि भारत के लिए चिंता करने का वक्त शुरू हो चुका है।

• इस हालात में जो देश (इजरायल) यह कहने की ताकत रखता है कि भारत के साथ रक्षा संबंधों में 'हमें ना तो संकोच है और ना ही शर्मिंदगी।' ऐसे  में उसकी दोस्ती स्वागत योग्य है। भारत ने इजरायल के साथ 1950 से 1992 तक 'बैक चैनल डिप्लोमेसी' के माध्यम से अपने संबंध बनाए।

• 1992 से 'फ्रंट चैनल डिप्लोमेसी' से दोनों देशों के रिश्ते आगे बढ़े। लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत होगी कि भारत को इजरायल से क्या फायदा होगा या क्या चुनौतियां सामने आएंगी।

• माना जाता है कि भारत में एनडीए सरकार से पूर्व भारत-इजरायल सम्बंधों पर बात करना 'टैबू' की तरह था। पर वर्तमान समय की बदलती जरूरतों ने इसे अब खारिज कर दिया है।

• इसका एक कारण तो दोनों देशों में सत्ताधारी दलों (भाजपा एवं लिकुड) की विचारधारा में समानता है।

•  अन्य कारणों के रूप में रक्षा एवं रणनीति है। अगर हम प्रधानमंत्री की इजरायल यात्रा और उसके राजनीतिक-कूटनीतिक परिणामों की बात करें तो।

• भारत 1950 के दशक से गुटनिरपेक्षता, सह-अस्तित्व और स्वतंत्रताओं का समर्थक रहा है। इन्हीं विशेषताओं के चलते भारत फिलस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देता रहा है। हालांकि अब भी भारत फिलस्तीन को लेकर अपने पुराने रुख को  अपनाए हुए है लेकिन प्रधानमंत्री की इजरायल यात्रा के बाद दुनिया शायद
 उसे बदले हुए नजरिए से देखे।

• फिलस्तीन 'टू नेशन' सिद्धांत को मानता है। 'टू नेशन' सिद्धांत के अनुसार गाजा पट्टी, जेरुसलम और वेस्टबैंक एक साथ मिलकर फिलिस्तीन राष्ट्र होंगे।

• इजरायल इसे नकारता है। चूंकि कश्मीर मसले पर इजरायल भारत के 'वन नेशन' सिद्धांत का समर्थन करता है इसलिए उसकी अपेक्षा यही होगी कि भारत भी 'वन नेशन' का समर्थन करे। यह तो तय है कि भारत जो अब तक इजराइल के साथ संबंधों को सामरिक स्तर पर तो तेजी से आगे बढ़ा रहा था।

•  अब पोलिटिकल  डिप्लोमेसी को लेकर उसकी संकोच दूर हो चुकी है। यह भारत का चीन-पाकिस्तान और अरब देशों-पाकिस्तान की जुगलबंदी का रणनीतिक जवाब होगा।
इजरायली कूटनयिक माइकल पं. नेहरू।

• मोदी ने 965 करोड़ करोड़ में इजरायली एयरोस्पेस इंडस्ट्री की बराक- एंटी मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीदने के सौदे को मंजूरी दी। पिछली यूपीए सरकार इस समझौते से पीछे हट गई थी।

• भारत ने 8,356 स्पाइक एंटी टैंक गाइडेड मिसाइल (एटीजीएम) और 321 लांचरों को 52.5 करोड़ डॉलर में खरीदने का फैसला लिया। भारत ने इजरायली उपकरणों को अमेरिकी जेवेलिन मिसाइल पर तरजीह दी।

• भारत इजरायल से 2680 करोड़ रुपए की 10 हेरॉन टीपी यूएवी भी खरीद रहा है। पाकिस्तान सीमा पर बाड़ लगाने से संबंधित तकनीक का भी भारत, इजरायल से आयात कर रहा है।

• अवाक्स सिस्टम दिया पर चीन को मना कर चुका है इजरायल

4. चीन की दूसरी सबसे बड़ी रॉकेट की लांचिंग नाकाम

• भारी उपग्रहों को प्रक्षेपित करने वाले चीन के दूसरे सबसे भारी रॉकेट की लॉन्चिंग नाकाम हो गई है। चीन के सरकारी मीडिया ने बताया कि फ्लाइट के दौरान कुछ गड़बड़ियों की वजह से रॉकेट का प्रक्षेपण नाकाम हो गया है।

• रॉकेट लॉन्चिंग के लाइव वीडियो में दिख रहा है कि शुरुआत में सब कुछ ठीक है। लाइव ब्रॉडकास्ट के वीडियो से किसी भी गड़बड़ी का अंदाजा भी नहीं हो पा रहा है। रॉकेट अपने साथ संचार उपग्रह को ले जा रहा था। रविवार सुबह 7.23 बजे दक्षिणी प्रांत हैनान के वेनचांग प्रक्षेपण केंद्र से रॉकेट उड़ान भरी।

• लॉन्ग मार्च-5 सीरीज के रॉकेटों का यह आखिरी परीक्षण उड़ान था। इसके बाद चीन इसी वर्ष चंद्रमा पर अपने खोजी यान चेंज-5 को भेजने का कार्यक्रम बनाया है, जो चंद्रमा से नमूने लेकर लौटेगा।

• लॉन्ग मार्च-5 रॉकेट ने नवंबर, 2016 में वेनचांग से ही पहली बार उड़ान भरी थी। लॉन्ग मार्च-5 रॉकेट के पिछले संस्करण की अपेक्षा नए रॉकेट की क्षमता दोगुनी थी।

• इसकी मदद से 25 टन तक के उपग्रहों को पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित किया जा सकता है और 14 टन तक के उपग्रहों को पृथ्वी की भूभौतिकी कक्षा में स्थापित किया जा सकता है। लेकिन इसकी लॉन्चिंग नाकाम होने से चीन के अंतरिक्ष कार्यक्रम को बड़ा झटका लगा है।

5. कतर नहीं मानेगा सऊदी अरब की मांग

• सऊदी अरब समेत चार प्रमुख खाड़ी देशों की 13 सूत्री मांगों को कतर ने खारिज कर दिया है। कहा है कि वह दबाव में कोई मांग नहीं मानेगा लेकिन गुण-दोष के आधार पर वह हर मुद्दे पर बात करने के लिए तैयार है।

• यह बात कतर के विदेश मंत्री शेख मुहम्मद बिन अब्दुल रहमान अल-थानी ने कही है। वह इन दिनों इटली की यात्र पर हैं।

• शेख मुहम्मद ने कहा, एकतरफा संबंध विच्छेद करने वाले देशों का का उद्देश्य आतंकवाद से लड़ना नहीं है बल्कि वे कतर की संप्रभुता को खत्म करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि कतर बातचीत का पक्षधर है लेकिन उसके लिए उचित और बेहतर माहौल होना चाहिए।

• विदेश मंत्री ने साफ कहा कि उनका देश तुर्की का सैन्य अड्डा खत्म करने नहीं जा रहा और न ही न्यूज चैनल अल-जजीरा को बंद किया जाएगा। ये दोनों मांगें सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), बहरीन और मिस्न द्वारा दिये गए 13 सूत्री पत्र में शामिल हैं।

•  इनके अतिरिक्त ईरान के साथ संबंधों का स्तर कम करने और कट्टरपंथी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से दूरी बनाने की भी कतर से मांग की गई है। मुस्लिम ब्रदरहुड अरब मुल्कों में राजशाही का विरोध करता है। मिस्न में प्रभाव वाले इस संगठन ने वहां के राष्ट्रपति अलसीसी को भी परेशान कर रखा है।

• वह अलसीसी की सरकार को जनता की सरकार नहीं मानता। मालूम हो कि सऊदी अरब के नेतृत्व वाले अरब देश कतर पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाते रहते हैं।

• खासकर आतंकी गतिविधियों के लिए धन मुहैया कराने की बात कही जाती रही है। हालांकि, कतर लगातार इस तरह के आरोपों को खारिज करता रहा है।

6. स्विस बैंकों से अपना धन निकाल रहे हैं भारतीय*

• स्विट्जरलैंड के बैंकों में रखे धन के मामले में भारत फिसलकर 88वें स्थान पर आ गया है। वहीं ब्रिटेन पहले पायदान पर बना हुआ है। इन आंकड़ों से ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय अपना धन स्विस बैंकों से अन्यत्र स्थानांतरित कर रहे हैं।

• स्विस नेशनल बैंक (एसएनबी) के ताजा आंकड़ों के विश्लेषण के अनुसार भारतीयों द्वारा रखा गया धन विदेशी ग्राहकों के स्विस बैंकों में रखे कोष का केवल 0.04 प्रतिशत है।

• भारत 2015 में 75वें स्थान पर जबकि इससे पूर्व वर्ष में यह 61वें स्थान पर था। वर्ष 2007 तक स्विस बैंकों में विदेशियों के जमा धन के मामले में शीर्ष 50 देशों में शामिल था। वर्ष 2004 में भारत इस मामले में 37वें स्थान पर था।

• काले धन की समस्या के
 समाधान के लिए स्विट्जरलैंड और भारत के बीच सूचना के स्वत: आदान-प्रदान के लिए नए मसौदे से पहले ज्यूरिख स्थित एसएनबी ने यह आंकड़ा जारी किया।

• एसएनबी के इन आंकड़ों में इस बात का जिक्र नहीं है कि भारतीयों, प्रवासी भारतीयों या विभिन्न देशों की इकाइयों के नाम पर अन्य ने कितना-कितना धन जमा किया हुआ है।स्विट्जरलैंड में बैंकिंग गोपनीयता के खिलाफ नियंतण्र अभियान के बाद ऐसी धारणा है कि जिन भारतीयों ने अपना अवैध धन पूर्व में स्विस बैंकों में रखा था, वे उन्हें दूसरी जगहों पर स्थानांतरित कर रहे हैं।

• काले धन के खिलाफ जारी कार्रवाई के बीच स्विस बैंकों ने यह भी कहा कि सिंगापुर तथा हांगकांग जैसे वैश्वकि वित्तीय केंद्रों की तुलना में भारतीयों के स्विस बैंकों में कुछ ही जमा राशि हैं।

• दुनिया भर के विदेशी ग्राहकों का स्विस बैंकों में जमा धन मामूली रूप से बढ़कर 2016 में 1,420 अरब स्विस फ्रैंक हो गई जो इससे पूर्व वर्ष में 1,410 अरब स्विस फ्रैंक थी। देश के हिसाब से देखा जाए तो स्विस बैंकों में जमा धन के मामले में ब्रिटेन सबसे आगे है। वहां के नागरिकों की जमा राशि 359 अरब स्विस फ्रैंक (25 प्रतिशत) हैं।

• अमेरिका 177 अरब स्विस फ्रैंक (14 प्रतिशत) के साथ दूसरे स्थान पर है। इसके अलावा किसी अन्य देश की हिस्सेदारी दहाई अंक में नहीं है। शीर्ष 10 देशों में वेस्टइंडीज, फ्रांस, बहमास, जर्मनी, गुएर्नसे, जर्सी, हांगकांग तथा लक्जमबर्ग हैं। भारत 67.6 करोड़ स्विस फ्रैंक के साथ 88वें स्थान पर है।

• लगातार तीन साल गिरावट के बाद यह रिकार्ड न्यूनतम स्तर पर आ गया हैं प्रतिशत के हिसाब से देखा जाए तो यह 0.04 प्रतिशत रहा जो 2015 में 0.08 प्रतिशत था।

• पाकिस्तान 1.4 अरब स्विस फ्रैंक के साथ 71वें स्थान पर है। ब्रिक्स देशों में रूस 19वें स्थान (15.6 अरब स्विस फ्रैंक), चीन 25वें (9.6 अरब डालर), ब्राजील 52वें (2.7 अरब डालर) तथा दक्षिण अफ्रीका 61वें स्थान पर है

• इन बैंकों में जमा धन के मामले में भारत 88वें स्थान पर फिसला


•  वर्ष 2014 में 61वें और 2015 में 75वें स्थान पर था भारत

•  वर्ष 2007 तक शीर्ष 50 देशों की सूची में शामिल था भारत

•  स्विस नेशनल बैंक की सूची में ब्रिटेन शीर्ष स्थान पर बरकरार

•  स्विस बैंकों में विदेशियों के
 जमा हैं 1420 अरब स्विस फ्रैंक

•  स्विस नागरिकों के जमा हैं सिर्फ 259 अरब स्विस फ्रैंक



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